मृत्युभोज भी कोई भोज होता है?

मृत्युभोज भी कोई भोज होता है?


                                                                                    एक किसान जिंदगी भर खेतों में काम करता है।खेती सबको पता है कि अब नफा कम नुकसान ज्यादा करती है लेकिन विकल्प के अभाव में हाड़तोड़ मेहनत करके गृहस्थी का बोझ उठाने का अनवरत प्रयास चलता रहता है।लेकिन जब इसी सूखे बदन व चेहरे पर झुर्रियां लिए किसान के ऊपर ब्राह्मणवाद टूट पड़े तो क्या हाल होता होगा इसके परिवार का!मैं खुद कई परिवारों की दुर्गति का मूकदर्शक गवाह रहा हूँ।कब तक इस तरह बर्बाद होते परिवारों को चुपचाप देखता रहूँ?कुछ तो लूट की सीमा हो!कुछ तो मानवता की मर्यादाएं हो!कुछ तो पंचों में इंसानियत का अंश जिंदा मिले!बूढ़े किसान की मौत पर सब इस तरह खाने को टूट पड़ते है जैसे उनके जीवन का अंतिम खाना यही हो!फिर कभी मिलेगा ही नहीं!इंसान की गिरावट को देखकर गिद्ध विलुप्त हो गए हमारे क्षेत्र से!एक दूसरे की झूठन चाटने की इंसानी कला को देखकर कुत्ते भी आने बंद हो गए लेकिन इंसान है कि गिरना बंद करता ही नहीं!

              कोई इंसान मर जाये,उसके बच्चे अनाथ से हो जाते है,उसकी विधवा गला फाड़-फाड़कर रो रही होती है।इन कर्कश-क्रंदन रोने की चीखों के बीच बैठकर इंसान मिठाईयां खा कैसे लेता है?कुछ तो इंसान कहने के लिए संवेदनाओं के टुकड़े खुद के अंदर बचा लो!सिर मुंडाएं,आंखों में आंसुओ का सैलाब लिए झूठी थालियों को लिए घूम रहे बच्चों पर तरस खा लो!क्यों झूठी शान के लिए इन परिवारों को बर्बाद किये जा रहे हो?जो समाज के पंच लोग है ,जो इस मृत्युभोज रूपी नरकासुर प्रथा का समर्थन करते है असल मे ये लोग इंसानी जामे में भूखे भेड़िए है।सभ्य समाज मे ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।किसी जानवर की मौत पर उस प्रजाति के बाकी जानवर मुंह लटकाकर भूखे बैठे रहते है लेकिन ये लोग अर्थी आंगन में पड़ी रहती है और बारह दिनों के भोजन का हिसाब लगाने बैठ जाते है।कुछ तो शर्म करो!इंसान होकर इंसानियत भूल गए तो जानवरों से ही कुछ सीख लो!

         ओढावनी-पहरावणी के नाम पर कपड़ों का इंतजार करते-रहते है।सारे रिश्तेदार बनियों की दुकानों पर लुटते फिरते है।लोग सिर मुंडाकर इस उम्मीद में बैठे रहते है कि ससुराल वाले ओढावनी के नाम पर मदद कर जाए!एक तरह से यह लालची व भूखे-नंगे लोगों का जमघट होता है।एक मौत पर मानवता का नंगा नाच होता है जिसे मृत्युभोज के नाम पर पुण्य का काम बताकर आयोजन किया जाता है।यह इंसानी पाप का चरम है जिसे पारलौकिक कल्पनाओं से रचित जलसा बताकर किया जाता है।

                 मानवता के इस ख़ौफ़नाक मंजर से जितना जल्दी हो मुक्ति ले लेनी चाहिए।सिर्फ मृत व्यक्ति के बेटे-बेटियों व बहुओं के अलावे किसी के लिए कोई कपड़ा लाने की रश्म अदायगी न की जाए।सिर्फ मृतव्यक्ति के परिवार वालों व उनके खास रिश्तेदारों के अलावे कोई इस आयोजन का भागीदार न बने।नशे के उपयोग पर पूर्ण पाबंदी हो।कोई रिश्तेदार भी मृत व्यक्ति के घर खाना न खाए।जो रिश्तेदार भौतिक रूप से दूर से आया हो उसके लिए खाने का इंतजाम पडौसी भाई करे।बारह दिनों के नाम पर जो इंसानियत को खोखली करने की रश्म है उसे घटाकर 3-5दिन के बीच सीमित किया जाए।जो खास रिश्तेदार है उनको एक नियत दिन एक साथ आने को कह दें।सिर मुंडाएं बच्चों की गांव से लेकर हरिद्वार तक की बस-रेलों में चल रही अस्थि-विसर्जन यात्राओं पर रोक लगाई जाएं।ये पाखंड की उड़ाने भरने से हर हाल में बचा जाना चाहिए।

                    जो पैसा बुढ़ापे में इस डर से इलाज पर खर्च नहीं किया जाता कि अगर मर गया तो मृत्युभोज का इंतजाम कैसे होगा!वो पैसा इलाज पर खर्च होगा।बच्चों की पढ़ाई पर खर्च होगा।काम-धंधों में निवेश होगा तो घरों में खुशहाली आएगी।परिवारों की बर्बादी का आलम खुशहाली में तब्दील हो जाएगा।अब इस तरह की तस्वीरें आगे नजर नहीं आनी चाहिए।ऐसे सामाजिक कलंक के धब्बों की धुलाई कर लीजिए।ये दाग बहुत बुरे है।जो जाहिल,जागरूक इंसानों की समझाइश से न समझ सके उनको कोरोना महाराज ने आईना दिखा दिया।अब किसी भी सूरत में इनकी जड़ें दुबारा नहीं जमनी चाहिए!

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